रोज छूट ही जाता हैं
कुछ न कुछ
आज बतियाना था जी-भर
हँसना था उन्मुक्त
जैसे कोई परिंदा पिंजड़े से
भर रहा हो पहली आजाद-उड़ान
उड़ते चले जाना था
तुम्हारी बातों के उड़न खटोले में
आकाश की ओर
रोज छूट ही जाता हैं
कुछ न कुछ
आज फूलों की बस्ती में जाना था
अलसुबह चुनना था हरसिंगार
एक तितली पकड़ कर रखनी थी
तुम्हारी कोमल हथेली पर
गुलाब जो तुम्हारे होंठो से चुराकर
हुए है सुर्ख
जूड़े में टाँगना था आहिस्ता-आहिस्ता
रोज छूट ही जाता हैं
कुछ न कुछ
आज चाँदनी रात में निरखना था देर तक
सितारों से भरा आसमान
कोई मन्नत माँगनी टूटते हुए तारे से
एक चाँद दूसरे चाँद से मुखातिब
देखना था छत पर
लेकिन रोज छूट ही जाता हैं
कुछ न कुछ
छूटने का क्या किसी दिन यूँ ही छूट जाएगा
देह से साँसों का साथ
तुम तो आत्मा में हो
और आत्मा तो अजर-अमर होती है ना प्रिये !